Richa
Nagar reads from her father's unique book of memoirs, 'Main Aur Mera Man'
(Lakhnavees's Blog, 8 December 2016)
7 December 2016, Lucknow. 'Main Aur
Mera Man' -- this was the title of tonight's event at Sanatkada ka Adda, a
memorable evening that touched and melted the hearts of all those who were
present in the audience. Lucknowites need no introduction to Hindi litterateur
and theatre activist, Dr. Sharad Nagar, who was also a man of science with a
Ph.D. in organic chemistry. From 1953 onwards, Sharad ji remained active with
key theatre organisations such as Indian People's Theatre Association and he established
a number of well-known cultural organisations in Agra and Lucknow, including
the well-known Nakshatra International. At the same time, he also tirelessly
compiled, edited, and presented before the world the literary work of his
father, Padma Bhushan Amritlal Nagar, a passion and commitment that occupied
him until his last breath. However, it is only by immersing ourselves in his
book of memoirs, 'Main aur Mera Man,' that we get a true sense of the poetic
power, range, and depth of Sharad ji's writing. In bringing his incomplete
memoirs to completion, his daughter Professor Richa Nagar has given a
remarkable gift to Hindi literature. In the pages of this book, which bring to
life the images and languages of old neighborhoods of Agra and Lucknow, we not
only relive critical moments of a social and cultural history that spans two
centuries, we also travel through the intimate history and struggles of the
Nagar family.
Compiled and edited by Richa after
Sharad ji's death in May 2014, 'Main aur Mera Man' is an exquisite tribute by a
daughter to her father. From this tribute, Richa shared three pieces with the
audience. In the first, she sketched a lively picture of a rare character from
the lanes of Agra's Gokulpura - Karimbakhsh Parchoonia. Then she introduced us to another
unforgettable personality from Gokulpura -- a barber called Ramji Lal. Then
with the help of her father's razor sharp memories and a language dipped in the
thick syrup of Hindi, Urdu, Awadhi, Braj, and Gujarati, Richa led us from the
Agra of the 1940s to Lucknow where Sharad ji engagingly evokes 'Chakallas,' a
magazine edited by Amritlal Nagar, as an excuse to celebrate the revolutionary
poetry of the famous Awadhi poet, 'Padhees' while also bringing to life
Lucknow's Chowk neighborhood of the 1940s.
Sharad ji’s unique pen has brought
to life the people, lanes, relationships and values of past eras while also
enlivening many forgotten words and accents. Richa Nagar's rich reading of his
work captivated the audience, especially with her delivery and command of
language and expression in Hindi, Urdu, Awadhi, Braj, and the Gujarati of
Nagars residing in Uttar Pradesh. The listeners were moved by the vibrancy, intimacy
and sensitivity of the book and expressed their praise and appreciation for Richa
Nagar's reading. The richness of today's event has given a new dimension and
depth to the cultural and literary activities organized by Sanatkada ka Adda.
अनूठी पुस्तक 'मैं और मेरा मन' का ऋचा नागर द्वारावाचन
७ दिसंबर २०१६, लखनऊ। 'मैं और मेरा मन' -- यह नाम था सनतकदा का अड्डा में आयोजित आज शाम के कार्यक्रम का और सच पूछिए तो यहाँ मौजूद लोगों के लिए आज की शाम सभी श्रोताओं के मन को छूने और भीतर तक पिघलाने वाली एक यादगार शाम बन गयी. लखनऊ के जाने माने साहित्यकर्मी और रंगकर्मी डॉक्टर शरद नागर के नाम से लखनऊ वासी खूब परिचित हैं. १९५३ से उन्होंने आगरा और लखनऊ में नक्षत्र तथा भारतेंदु रंगमंच अध्ययन एवं अनुसन्धान केंद्र जैसी अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं की स्थापना की और साथ ही अपने पिता, पद्म भूषण अमृतलाल नागर के साहित्य को बड़ी खूबसूरती के साथ संगृहित और सम्पादित करके दुनिया के सामने लाने का काम अपनी अंतिम सांस तक किया। लेकिन खुद शरद जी की लेखनी में कितना दम और काव्यात्मकता थी इसका सही एहसास हमें उनकी पुत्री प्रोफेसर ऋचा नागर द्वारा संकलित और सम्पादित पुस्तक 'मैं और मेरा मन' में डूबकर ही होता है. अपने पिता के अधूरे संस्मरणों को ऋचा नागर ने इस पुस्तक के ज़रिये समापन तक लाकर हिंदी साहित्य को एक अनमोल तोहफ़ा दिया है जिसके लिए वे बधाई की पात्र हैं. इस किताब के पन्नों में हमें आगरा और लखनऊ के गली-मोहल्लों की आवाज़ों और जीती-जागती तस्वीरों के माध्यम से एक पूरे दौर का इतिहास तो मिलता ही है, साथ में नागर परिवार के निजी इतिहास और संघर्ष यात्राओं से भी हमारा बड़ा आत्मीय ढंग से परिचय होता है.
मई २०१४ में शरद जी के देहांत के बाद ऋचा द्वारा संजोयी और सँवारी इस पुस्तक में से ऋचा ने तीन हिस्से आज श्रोताओं के साथ साझा किये। पहले उन्होंने तस्वीर खींची आगरा के गोकुलपुरा मोहल्ले के नायाब किरदार करीमबख़्श परचूनिया की, फिर उन्होंने हमारी मुलाक़ात करवाई गोकुलपुराके 'अनागर नागर' नाई रामजी लाल से. फिर १९४० के दशक के आगरा से ऋचा हमें अपने पिता की रेज़र की धार जैसी याददाश्त और हिंदी, उर्दू, अवधी, ब्रज और गुजराती की चाशनी में डूबी भाषा के सहारे ले आईं लखनऊ, जहाँ अमृतलाल नागर द्वारा सम्पादित पत्रिका 'चकल्लस' के बहाने शरद नागर ने बड़े ही मनमोहक ढंग से अवधी के जाने माने क्रन्तिकारी कवि 'पढ़ीस' को याद करते हुए १९४० के दशक के चौक मोहल्ले को ज़िंदा किया है.
जहाँ शरद नागर की अदभुत लेखनी ने गुज़रे ज़माने के लोगों, गलियों, रिश्तों, और मूल्यों के साथ साथ भूले हुए लफ़्ज़ों को ज़िन्दगी की महक से भरने का काम किया है, वहीं ऋचा नागर की ज़बान और पाठन के अंदाज़ ने सुनने वालों को मंत्र मुग्ध कर दिया। हिंदी, उर्दू, अवधी, ब्रज और उत्तर प्रदेश के नागरों की गुजराती का इतना स्पष्ट उच्चारण और अभिव्यक्ति की ऐसी सहजता और पारिपक्वता कम ही देखने को मिलती है. इस मर्मस्पर्शी कार्यक्रम से श्रोता विगलित हो गए. सभी ने पुस्तक की प्रशंसा की और ऋचा के वाचन को सराहा। आज के सुन्दर आयोजन से सनतकदा का अड्डा ने अपनी सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों को एक नया आयाम और गहराई दी है.
अनूठी पुस्तक 'मैं और मेरा मन' का ऋचा नागर द्वारावाचन
-- लखनवीस ब्लॉग, ८ दिसम्बर २०१६
७ दिसंबर २०१६, लखनऊ। 'मैं और मेरा मन' -- यह नाम था सनतकदा का अड्डा में आयोजित आज शाम के कार्यक्रम का और सच पूछिए तो यहाँ मौजूद लोगों के लिए आज की शाम सभी श्रोताओं के मन को छूने और भीतर तक पिघलाने वाली एक यादगार शाम बन गयी. लखनऊ के जाने माने साहित्यकर्मी और रंगकर्मी डॉक्टर शरद नागर के नाम से लखनऊ वासी खूब परिचित हैं. १९५३ से उन्होंने आगरा और लखनऊ में नक्षत्र तथा भारतेंदु रंगमंच अध्ययन एवं अनुसन्धान केंद्र जैसी अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं की स्थापना की और साथ ही अपने पिता, पद्म भूषण अमृतलाल नागर के साहित्य को बड़ी खूबसूरती के साथ संगृहित और सम्पादित करके दुनिया के सामने लाने का काम अपनी अंतिम सांस तक किया। लेकिन खुद शरद जी की लेखनी में कितना दम और काव्यात्मकता थी इसका सही एहसास हमें उनकी पुत्री प्रोफेसर ऋचा नागर द्वारा संकलित और सम्पादित पुस्तक 'मैं और मेरा मन' में डूबकर ही होता है. अपने पिता के अधूरे संस्मरणों को ऋचा नागर ने इस पुस्तक के ज़रिये समापन तक लाकर हिंदी साहित्य को एक अनमोल तोहफ़ा दिया है जिसके लिए वे बधाई की पात्र हैं. इस किताब के पन्नों में हमें आगरा और लखनऊ के गली-मोहल्लों की आवाज़ों और जीती-जागती तस्वीरों के माध्यम से एक पूरे दौर का इतिहास तो मिलता ही है, साथ में नागर परिवार के निजी इतिहास और संघर्ष यात्राओं से भी हमारा बड़ा आत्मीय ढंग से परिचय होता है.
मई २०१४ में शरद जी के देहांत के बाद ऋचा द्वारा संजोयी और सँवारी इस पुस्तक में से ऋचा ने तीन हिस्से आज श्रोताओं के साथ साझा किये। पहले उन्होंने तस्वीर खींची आगरा के गोकुलपुरा मोहल्ले के नायाब किरदार करीमबख़्श परचूनिया की, फिर उन्होंने हमारी मुलाक़ात करवाई गोकुलपुराके 'अनागर नागर' नाई रामजी लाल से. फिर १९४० के दशक के आगरा से ऋचा हमें अपने पिता की रेज़र की धार जैसी याददाश्त और हिंदी, उर्दू, अवधी, ब्रज और गुजराती की चाशनी में डूबी भाषा के सहारे ले आईं लखनऊ, जहाँ अमृतलाल नागर द्वारा सम्पादित पत्रिका 'चकल्लस' के बहाने शरद नागर ने बड़े ही मनमोहक ढंग से अवधी के जाने माने क्रन्तिकारी कवि 'पढ़ीस' को याद करते हुए १९४० के दशक के चौक मोहल्ले को ज़िंदा किया है.
जहाँ शरद नागर की अदभुत लेखनी ने गुज़रे ज़माने के लोगों, गलियों, रिश्तों, और मूल्यों के साथ साथ भूले हुए लफ़्ज़ों को ज़िन्दगी की महक से भरने का काम किया है, वहीं ऋचा नागर की ज़बान और पाठन के अंदाज़ ने सुनने वालों को मंत्र मुग्ध कर दिया। हिंदी, उर्दू, अवधी, ब्रज और उत्तर प्रदेश के नागरों की गुजराती का इतना स्पष्ट उच्चारण और अभिव्यक्ति की ऐसी सहजता और पारिपक्वता कम ही देखने को मिलती है. इस मर्मस्पर्शी कार्यक्रम से श्रोता विगलित हो गए. सभी ने पुस्तक की प्रशंसा की और ऋचा के वाचन को सराहा। आज के सुन्दर आयोजन से सनतकदा का अड्डा ने अपनी सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों को एक नया आयाम और गहराई दी है.
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