Richa Nagar - Kavita Ke Bahaane
नयी पुरानी कवितायेँ और कुलबुलाहटें, ज़बानों और क़लम के क़ायदों और क़ैदों से जूझते हुए और उनकी सरहदों के आर-पार / Nayi purani kavitayen aur kulbulahaten, zabaano aur qalam ke qayadon aur qaidon se jooghtay hue, aur unki sarhadon ke aar-paar/ Beyond the rules and prisons of tongues and pens...
Tuesday, January 24, 2017
आग बनाने की विधि
चिकने, सपाट
सफ़ों से
बर्फ़ीली सर्द
रातों में
आग नहीं
बना करती।
देर तक आग
टिकाने के लिए
के लिए
ढूँढ़ो
कोई खुरदुरा, बासी-सा,
खूब जिया हुआ
काग़ज़
ज़िन्दगी की
तमाम इबारतों
के गहने पहने
उन पन्नों को
को ज़रा मरोड़ो
हलके-से
बनाओ उनकी सेज
सजाओ
उनपर
सूखी भरोसेमंद
लकड़ियों का तिकोना
और तीली से निकली
चिंगारी चले
तले से
कि
लपट की
शुरुआत की
किसी को
ख़बर न हो
कानोकान
और फेफड़ों में
हो दम
फूंक मारने का
तब तक
जब तक लकड़ी
का हर टुकड़ा
लौ न पकड़ ले
लाल-पीली-काली
लपटों में
उतर न आये
गहरी नीलिमा
जो रोक सके
आग
हर उस धधकते
कलेजे में
जो सर्द बर्फ़ीली
रातों के
वारों से
भयभीत होकर
काँपता है.
Monday, January 2, 2017
नए साल में...
कब आएगा
वो नया साल
जब तुम समझोगे
ये तड़प
जो सर उठाती है
किसी मुद्दे या
बहस में
किसी झूठ या
खाईं में
और बार बार
तब्दील होती है
एक नज़र में
एक आवेग में
एक निर्लज्ज
छटपटाहट में
कोई-न-कोई
बहाना बना
हर दफ़ा पहुँचती है
तुम्हारे क़दमों तले
बिछने के लिए
आतुर
तुम्हारे मन को
बेधने के लिए
मचलती
तुम्हारी गर्म हथेली से
अपनी हथेली
रगड़कर
एक नयी उड़ान भरने को
बेसब्र।
समझोगे
कब
इस चौंकाती
ज़ालिम तड़प
का सफ़र, ताकि
रोक लो
ख़ुद को
बारम्बार
ऐसा कुछ
कहने
के पहले
जो कुचल दे
मेरी रूहानी भूख,
धकेल दे उसे
उन्हीं थके-हारे
सन्नाटों में, पूर्व-परिभाषित
दायरों में,
जिन्हें ईजाद किया
गया था, सिर्फ़
बेलौस
मोहब्बत की
लपटें
बुझाने
के लिए.
पुरानी लखौड़ी
न तुम हो
मेरे पीपल
न मैं तुम्हारी
अमरलता,
न तुम हो
आवारा
बादल, न मैं
तुम्हें सोखती
जलधारा.
दरअस्ल
हम-तुम हैं
दरकती हुई
दीवारों में धंसी
सदियों पुरानी
आंच
में पकी
लखौड़ी ईंटें
अपने इतिहासों की
आँधियों से
बग़ैर मुँह चुराए
भूखी सीपों
की तरह
पीते पोर-पोर में
अपने वर्तमानों
के तूफ़ान,
बार-बार उस
माटी में
भुरभुराकर
बिखरने के लिए
जिसमें
उगा सकें
अपनी नयी कविता
बासी उपमाओं
तुलनाओं-ठप्पों
से आज़ाद
गुंथी हुई उँगलियों
उलझी हुई टांगों
कसकते हुए दिलों
में धमकती
वज़नी साँसों
की धौंकनी
में से
कुनमुनाती, इठलाती
कभी न ख़त्म
होने वाली
रातों में
खोजे
हर स्पंदन से
कोहराम मचाती
चांदनी की लपटों
में बनते रहें
दहकते शोले
अपनी आत्मा के
सच से
अपने हिंसक
इतिहासों की
ख़ामोशियों को
गुमनाम-कुचले
सूरजों की
रौशनियों
से चीरें
निर्भीक।
Thursday, December 29, 2016
घर आते परदेसी
१. सुर संभालिये, देवी जी
(लखनऊ, ३ दिसंबर २०१६ )
निडर होकर
नाम लेती हूँ
इस मुल्क की
गली-गली में
पलती
किसी घिनौनी सच्चाई का
किसी सियासी झूठ का
किसी क़त्लेआम का
किसी शर्मनाक हैवानियत का
तो
मुझसे कहा जाता है
कि पहले देखो
अपने घर को
अपने वतन को
अपने नए राष्ट्रपति को
तब
मुँह से आवाज़ निकालना...
और
मैं अपनी
तड़प जज़्ब करके
पलटती हूँ
अपने आरोपी पर
कि
घरों के नाम पर
मेरी आवाज़ को
बेघर न कर सकोगे
कि
मेरे सुरों की तरंगे
किसी की देहरी के भीतर
रस्सी से बंधी
कोई बेज़ुबान
पालतू गाय नहीं
जो माता बनकर
खुद अपनी ही मौत पर
हुंकार न सके
रंभा न सके
और मरते मरते भी
उस मंदिर की कच्ची ईंटों
को लात मारकर
गिरा न सके
जिसमें वो सिर्फ़
किसी की ग़ुलाम
या हथकंडा
बनकर
'माता' नाम की क़ैद को
धर्म मानकर
सबको अपने दोहन
का हक़
देती रही.
२. भूरी चमड़ी की जांच-पड़ताल उर्फ़ तुरुप-देस में रैंडम सर्वे
(मिनियापोलिस-सेंट पॉल अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट, २१ दिसंबर २०१६)
पहला चरण
आप कहाँ से आयी हैं?
आप क्या लायी हैं?
आपका घर कहाँ है?
आप यहीं की हैं
तो ठीक है
आ जाइये
अब आपको और
तकलीफ़ नहीं देंगे।
२० मिनट बाद
अरे, अरे, मैम!
कहाँ चलीं आप?
आपने तो ख़ामख़ां समझ लिया
हम आपसे और जवाब
तलब नहीं करेंगे
ज़रा रुकिए
ये तो बताइये
कितनी बार जाती हैं
अपने उस देश
क्या करती हैं वहाँ,
और फिर यहाँ?
ओहो, तो यहीं रहती हैं आप
अच्छा, नागरिक भी हैं!
घर यहाँ है तो
फिर वहाँ भी कैसे है?
बेटी यहाँ है तो
परिवार वहाँ भी कैसे है?
काम यहाँ है
तो वहाँ भी कैसे है?
पहला चरण
आप कहाँ से आयी हैं?
आप क्या लायी हैं?
आपका घर कहाँ है?
आप यहीं की हैं
तो ठीक है
आ जाइये
अब आपको और
तकलीफ़ नहीं देंगे।
२० मिनट बाद
अरे, अरे, मैम!
कहाँ चलीं आप?
आपने तो ख़ामख़ां समझ लिया
हम आपसे और जवाब
तलब नहीं करेंगे
ज़रा रुकिए
ये तो बताइये
कितनी बार जाती हैं
अपने उस देश
क्या करती हैं वहाँ,
और फिर यहाँ?
ओहो, तो यहीं रहती हैं आप
अच्छा, नागरिक भी हैं!
घर यहाँ है तो
फिर वहाँ भी कैसे है?
बेटी यहाँ है तो
परिवार वहाँ भी कैसे है?
काम यहाँ है
तो वहाँ भी कैसे है?
चलिए इसी बात पर
खोल डालिये
अपना सारा सामान
अपना आगा-पीछा
और पूरी की पूरी
समा जाइये
हमारी स्मार्ट एक्स-रे
मशीन के भीतर
तभी तय कर पाएंगे
आपकी रिहाई
कब और कैसे हो.
बाय द वे,
हमारे इस 'प्रोसेस'
से घबराकर
यह न समझ बैठियेगा कि
हमारे इस महान देश के
सारे नागरिक
बराबर नहीं है.
ये तो सिर्फ़
देश की हिफ़ाज़त
के लिए एक
रैंडम सर्वे है.
कोशिश रहेगी
इससे आप
अगली बार भी
पूरी तरह भयभीत होकर
सफ़र करें।
याद रहे, इस मुल्क में
भूरी चमड़ी का अर्थ है
सदा संदिग्ध चमड़ी
अब सर्वे ख़त्म।
ब्रह्माण्ड के इस
सबसे आज़ाद मुल्क में
आपका
स्वागत है.
खोल डालिये
अपना सारा सामान
अपना आगा-पीछा
और पूरी की पूरी
समा जाइये
हमारी स्मार्ट एक्स-रे
मशीन के भीतर
तभी तय कर पाएंगे
आपकी रिहाई
कब और कैसे हो.
बाय द वे,
हमारे इस 'प्रोसेस'
से घबराकर
यह न समझ बैठियेगा कि
हमारे इस महान देश के
सारे नागरिक
बराबर नहीं है.
ये तो सिर्फ़
देश की हिफ़ाज़त
के लिए एक
रैंडम सर्वे है.
कोशिश रहेगी
इससे आप
अगली बार भी
पूरी तरह भयभीत होकर
सफ़र करें।
याद रहे, इस मुल्क में
भूरी चमड़ी का अर्थ है
सदा संदिग्ध चमड़ी
अब सर्वे ख़त्म।
ब्रह्माण्ड के इस
सबसे आज़ाद मुल्क में
आपका
स्वागत है.
वेबसाइट- http://richa.nagar.umn.edu
Tuesday, December 27, 2016
Nourishment
Don't be scared of my bony arms!
You look so worried about
The pale whiteness of my dry dark eyes bulging out of
The sunken sockets on
My fleshless tobacco-chewing face,
She says, laughing hard.
Coiling her thickest darkest knee-length hair
Into her a loose bun,
Stirring the sauce,
Turning over the paraantha,
on the tava,
Rolling the next ball of dough
on the chakla,
She holds my gaze with hers
Demands my
Undivided attention, enunciates
Softly -
Unambiguously -
These wiry fingers can
hold your face
Without cracking, when you feel
Fatherless,
Motherless,
Loverless,
Childless
They will feed you
Nourishing hot meals that calm your
Anxious soul
So that you may continue your fights about
My plight
Eat!
Don't feel guilty that I feed you
With my belly stuck to my spine.
I will feed your
Mother, too
If she will let me.
If she will
Remember
Me as Budhiya
In a sari, in a bindi
A dying body that lived fully
Gracefully
Not in this everyday attire
That I wear for the world
To prove the
Fidelities that are demanded of me
Acting
Living
Laboring
Without compromising
Hansa, the Soul
Processing
my Desires
Un-possessing
my Attachments
Dis-possessing
my Dreams
Re-possessing
my Spirit
On my own terms
Kicking categories
Claiming religion
Namelessly
Freely
Abundantly
Closing my eyes
Losing myself
Singing Hansa
The Soul
Again,
Yet again.
You look so worried about
The pale whiteness of my dry dark eyes bulging out of
The sunken sockets on
My fleshless tobacco-chewing face,
She says, laughing hard.
Coiling her thickest darkest knee-length hair
Into her a loose bun,
Stirring the sauce,
Turning over the paraantha,
on the tava,
Rolling the next ball of dough
on the chakla,
She holds my gaze with hers
Demands my
Undivided attention, enunciates
Softly -
Unambiguously -
These wiry fingers can
hold your face
Without cracking, when you feel
Fatherless,
Motherless,
Loverless,
Childless
They will feed you
Nourishing hot meals that calm your
Anxious soul
So that you may continue your fights about
My plight
Eat!
Don't feel guilty that I feed you
With my belly stuck to my spine.
I will feed your
Mother, too
If she will let me.
If she will
Remember
Me as Budhiya
In a sari, in a bindi
A dying body that lived fully
Gracefully
Not in this everyday attire
That I wear for the world
To prove the
Fidelities that are demanded of me
Acting
Living
Laboring
Without compromising
Hansa, the Soul
Processing
my Desires
Un-possessing
my Attachments
Dis-possessing
my Dreams
Re-possessing
my Spirit
On my own terms
Kicking categories
Claiming religion
Namelessly
Freely
Abundantly
Closing my eyes
Losing myself
Singing Hansa
The Soul
Again,
Yet again.
20 November 2016
One more time
One more time
You ask me to
tell you
Another one of
those stories
That haunts my
heart
That keeps me
awake and alive
Sleepless and
anxious:
on fire.
Another one of
those
stories that
connects the ones
I’ve birthed to
those who
Have birthed
me—
Mind, body, soul—
Ancestors,
Alive
and dead
who live inside me
Unbound by time
Unrelated by blood
Whose crossings
Enable me to
grope in
my hauntings—grow in
my tears
Stories that
can’t be worded—
refuse terms available in
dictionaries
permissible in footnotes and
glossaries
Stories that
stab
Gently,
tellingly
Then bleed into
countless others:
Wounds
Desires
Destinies
Are received,
Given,
Inflicted,
Curses
(dis)inherited
For an
Eternity.
And you ask me
one more time
To tell you a
story
A stabbing
wordless story
Not to become
Restless
or
permanently
wounded
by its truth
Nor to honor it
by
Bringing it
into communion with the
Haunted—
Haunting—
powers of
wordlessness
speechlessness
but
to interpret it
to frame it
to make yet
another Intervention or
Pronouncement
To fix its
meaning
In a voice that
takes its accents away
In a tongue
That has been
stripped of
flesh
muscle sensation
vibration
in a voice that
fixes its meaning
and delivers it
cold
singular
Soulless
incapable of
twisting
exploring,
moving, collaborating, with
Lips that can't
come together
to echo
the sounds that
are unreachable,
unreadable
unhearable
This tongue—
These
Vibrations take the story
down the throat
into the gut all the way to the
Pit
of the stomach
But Tongues,
lips,
throats,
guts
stripped
of
muscles
sensations
vibrations
will beat
the story flat
Like a drenched
old rag
Being beaten
repeatedly with a flat stick
hand washed
on stone by a
body squatting
next to it
Bent over it
beating
beating
beating
Surrounded by a
mountain
bedsheets,
bras, salwaars, shirts, skirts, and saris,
rags, pants, petticoats, underwear, and heavy
blue jeans
Blood-stained and
waiting to be
washed before the
Trickle in the
tap disappears, before the
Legs become
overwhelmed by that full
heavy feeling
making it
impossible to stand
On your feet
after you are
done
washing that
mountain
If my metaphors
do not
make sense it's
because
your body does
not know
what I know
from learning
what it is like
to beat clothes
on stones under
trickles of water
over years,
decades,
generations
Yet you feel
authorized
to insist that
I tell
you another
story—
as if my tongue
was not my own hot
flesh
you retell
Without
humility or
Tentativeness without
Feeling in a
piece of your bones
Even for a
second my
wounded
everyday sort of
joy,
pain,
of
that
overwhelming fullness
that piercing,
deadening Heaviness
in my thighs
Moving upwards
and spreading in to
My arms,
shoulders
up my neck
that connects
with the veins
of my Soul.
That you will never
Realize, you
cannot
Know:
In your
eagerness to retell another
one of these
Stories you’ve gone
without
learning
how to squat
for hours
washing
beating
cloth after
cloth
On the stone
Before that
trickle vanishes.
(10 November 2016)
(10 November 2016)
[1] I dedicate this poem to
Baba, Ma, Chandar ki Amma, Sarla, Rajkumari, and Tarun. Thank you, Medha, for
helping me translate at points where my metaphors could not move.
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