कब आएगा
वो नया साल
जब तुम
समझोगे
ये तड़प
जो
सर उठाती है
किसी मुद्दे या
बहस में
किसी झूठ या
खाईं में
और
बार बार
तब्दील होती है
एक नज़र में
एक आवेग में
एक निर्लज्ज
छटपटाहट में
कोई-न-कोई
बहाना बना
हर दफ़ा
पहुँचती है
तुम्हारे क़दमों तले
बिछने के लिए
आतुर
तुम्हारे मन
को
बेधने के लिए
मचलती
तुम्हारी गर्म हथेली
से
अपनी हथेली
रगड़कर
एक नयी उड़ान
भरने को
बेसब्र।
समझोगे
कब
इस चौंकाती
ज़ालिम तड़प
का सफ़र, ताकि
रोक लो
ख़ुद को
बारम्बार
ऐसा कुछ
कहने
के पहले
जो कुचल दे
मेरी रूहानी
भूख,
धकेल दे
उसे
उन्हीं
थके-हारे
सन्नाटों में,
पूर्व-परिभाषित
दायरों में,
जिन्हें ईजाद
किया
गया
था, सिर्फ़
बेलौस
मोहब्बत की
लपटें
बुझाने
के लिए.
पुरानी लखौड़ी
न तुम हो
मेरे पीपल
न मैं तुम्हारी
अमरलता,
न तुम हो
आवारा
बादल, न मैं
तुम्हें सोखती
जलधारा.
दरअस्ल
हम-तुम हैं
दरकती हुई
दीवारों में धंसी
सदियों पुरानी
आंच
में पकी
लखौड़ी ईंटें
अपने इतिहासों की
आँधियों से
बग़ैर मुँह चुराए
भूखी सीपों
की तरह
पीते पोर-पोर में
अपने वर्तमानों
के तूफ़ान,
बार-बार उस
माटी में
भुरभुराकर
बिखरने के लिए
जिसमें
उगा सकें
अपनी नयी कविता
बासी उपमाओं
तुलनाओं-ठप्पों
से आज़ाद
गुंथी हुई उँगलियों
उलझी हुई टांगों
कसकते हुए दिलों
में धमकती
वज़नी साँसों
की धौंकनी
में से
कुनमुनाती, इठलाती
कभी न ख़त्म
होने वाली
रातों में
खोजे
हर स्पंदन से
कोहराम मचाती
चांदनी की लपटों
में बनते रहें
दहकते शोले
अपनी आत्मा के
सच से
अपने हिंसक
इतिहासों की
ख़ामोशियों को
गुमनाम-कुचले
सूरजों की
रौशनियों
से चीरें
निर्भीक।
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