नयी पुरानी कवितायेँ और कुलबुलाहटें, ज़बानों और क़लम के क़ायदों और क़ैदों से जूझते हुए और उनकी सरहदों के आर-पार / Nayi purani kavitayen aur kulbulahaten, zabaano aur qalam ke qayadon aur qaidon se jooghtay hue, aur unki sarhadon ke aar-paar/ Beyond the rules and prisons of tongues and pens...
Friday, May 27, 2016
सच
धमनियों में धमकता सच
जब हिम्मत बनकर
आज़ादी मांगने लगे
मनुवाद से
ब्राह्मणवाद से
पूंजीवाद से
फ़ासीवाद से
तो कोई सियासी हैवानियत
उसे रौंद नहीं सकती
देशद्रोही करार करके
धमनियों में धमकता सच
जब नाम देने लगे
उन ज़ुल्मों को
जिनमें हममें से कितने ही लोग
दर रोज़ शरीक होते हैं
तो
उस सच के मुँह पर
ज़बरन हाथ धर के
उसे वापस
घर में ठेल देना
मुमकिन नहीं
धमनियों में धमकता सच
जब उस देहरी पर से पर्दा उठा दे
जहाँ विचारवानों की बैठकों
में बँटने वाली चाय की प्यालिओं में से
छूआछूत की गंध आती हो
जहाँ की चाहरदीवारियों के भीतर
हगने.मूतने के लिए
किसी ख़ास जाति का ठप्पा
ओढ़ना ज़रूरी हो
जहाँ अर्जुन की ख़ातिर
कितने ही एकलव्यों को
बार.बार आत्महत्या
करनी पड़े,
तो कोई भी झूठ
रोक नहीं
सकता
उस इज़्ज़त का
जनाज़ा उठने से
धमनियों में धमकता सच
जब चीख़-चीख़कर नंगा कर दे
उस देश प्रेम की असलियत को
जहाँ एक क़ौम के
क़त्लेआम को खुलेआम शह दी जा रही हो
और वही सच
जब भस्म
कर दे
शर्मो-हया की उन परतों को
जो औरत को
उसके घर से,
उसके प्यार से,
उसके हक़ से,
उसकी रूह से,
हर मोड़ पर पराया
करने को आमादा रहती है
तो
धमनियों में धमकता सच
जला देगा हर झूठ को
और आज़ादी माँगता रहेगा
मनुवाद से
ब्राह्मणवाद से
पूंजीवाद से
फासीवाद से
साम्राज्यवाद से
रोहित से कन्हैय्या तक
कन्हैय्या से शेहला तक
शेहला से सोनी सोढ़ी तक
हैदराबाद से दिल्ली तक
कश्मीर से बस्तर तक
तुम्हारे घर से मेरे दर तक
मेरी धड़कन से तुम्हारी सांस तक
दौड़ेगा
यह सच
हम सबकी धमनियों में
और
देखते रहना
इस वक़्त का दावा है
कि कोई भी सियासी हैवानियत
रौंद नहीं सकेगी
इस सच को
देशद्रोही करार करके
२१ फ़रवरी २०१६
धमनियों में धमकता सच
जब हिम्मत बनकर
आज़ादी मांगने लगे
मनुवाद से
ब्राह्मणवाद से
पूंजीवाद से
फ़ासीवाद से
तो कोई सियासी हैवानियत
उसे रौंद नहीं सकती
देशद्रोही करार करके
धमनियों में धमकता सच
जब नाम देने लगे
उन ज़ुल्मों को
जिनमें हममें से कितने ही लोग
दर रोज़ शरीक होते हैं
तो
उस सच के मुँह पर
ज़बरन हाथ धर के
उसे वापस
घर में ठेल देना
मुमकिन नहीं
धमनियों में धमकता सच
जब उस देहरी पर से पर्दा उठा दे
जहाँ विचारवानों की बैठकों
में बँटने वाली चाय की प्यालिओं में से
छूआछूत की गंध आती हो
जहाँ की चाहरदीवारियों के भीतर
हगने.मूतने के लिए
किसी ख़ास जाति का ठप्पा
ओढ़ना ज़रूरी हो
जहाँ अर्जुन की ख़ातिर
कितने ही एकलव्यों को
बार.बार आत्महत्या
करनी पड़े,
तो कोई भी झूठ
रोक नहीं
सकता
उस इज़्ज़त का
जनाज़ा उठने से
धमनियों में धमकता सच
जब चीख़-चीख़कर नंगा कर दे
उस देश प्रेम की असलियत को
जहाँ एक क़ौम के
क़त्लेआम को खुलेआम शह दी जा रही हो
और वही सच
जब भस्म
कर दे
शर्मो-हया की उन परतों को
जो औरत को
उसके घर से,
उसके प्यार से,
उसके हक़ से,
उसकी रूह से,
हर मोड़ पर पराया
करने को आमादा रहती है
तो
धमनियों में धमकता सच
जला देगा हर झूठ को
और आज़ादी माँगता रहेगा
मनुवाद से
ब्राह्मणवाद से
पूंजीवाद से
फासीवाद से
साम्राज्यवाद से
रोहित से कन्हैय्या तक
कन्हैय्या से शेहला तक
शेहला से सोनी सोढ़ी तक
हैदराबाद से दिल्ली तक
कश्मीर से बस्तर तक
तुम्हारे घर से मेरे दर तक
मेरी धड़कन से तुम्हारी सांस तक
दौड़ेगा
यह सच
हम सबकी धमनियों में
और
देखते रहना
इस वक़्त का दावा है
कि कोई भी सियासी हैवानियत
रौंद नहीं सकेगी
इस सच को
देशद्रोही करार करके
२१ फ़रवरी २०१६
Aalap... no italics
theatre
dharati dhaani
Dhamak dha-ni
translate without italics
surrender-blend-(re)fuse
imposed terms
Rang that rubs on the manch of the soul
like the sun
spreads on garbage heaps
glistening
penetrating through plastic
making nourishment for
everything that walks
dogs
cats
pigs
goats
humans
cows crows
refuse refuse
h a l a k - m a l a k
rivers that feed
move
rise
inundate
kick
curse
(from) the sorrow of desertification
forming fire
in bellies
that fight
without protein
that dream
with the aches of finger joints
crushed, knotted
slaving through the hungers
and desires of eight kitchens a day
through lids full of Ariel--the detergent that whitens
the grime of endless laundry loads... as her employers struggle to find the zameen that can feed them...
in the rat race
burns skin
not Soul
dry skeletal hands
that hold another pair
dancing
trancing together
want
lust
ache
submerge surrender
intoxicating
fires
movement
virodh, vidroh
vinash, vikalp
pyaas
bhookh
rooh
jism
rudan
milan
cheetkaaar
aag shor
bhookh
Sarjan
Mold rift
d r i f t
rupture
gently
FIERCELY
touching
shaking
piercing
s p r e a d i n g
creating
rhythms
waves
eruptions
soar - sear - scorch
spirit
revolting
revoluting
screaming
ferocious, untamable, love
that
spreads its arms
legs
heart
find in the atma
every utterance
every desire
every love
that was denied.
Ghadar
rang aur
jung
ka manch
roz-dar-roz
zindagi bina haare
transl(iter)ation
tarjuma?
no italics
dharati dhaani
Dhamak dha-ni
translate without italics
surrender-blend-(re)fuse
imposed terms
Rang that rubs on the manch of the soul
like the sun
spreads on garbage heaps
glistening
penetrating through plastic
making nourishment for
everything that walks
dogs
cats
pigs
goats
humans
cows crows
refuse refuse
h a l a k - m a l a k
rivers that feed
move
rise
inundate
kick
curse
(from) the sorrow of desertification
forming fire
in bellies
that fight
without protein
that dream
with the aches of finger joints
crushed, knotted
slaving through the hungers
and desires of eight kitchens a day
through lids full of Ariel--the detergent that whitens
the grime of endless laundry loads... as her employers struggle to find the zameen that can feed them...
in the rat race
burns skin
not Soul
dry skeletal hands
that hold another pair
dancing
trancing together
want
lust
ache
submerge surrender
intoxicating
fires
movement
virodh, vidroh
vinash, vikalp
pyaas
bhookh
rooh
jism
rudan
milan
cheetkaaar
aag shor
bhookh
Sarjan
Mold rift
d r i f t
rupture
gently
FIERCELY
touching
shaking
piercing
s p r e a d i n g
creating
rhythms
waves
eruptions
soar - sear - scorch
spirit
revolting
revoluting
screaming
ferocious, untamable, love
that
spreads its arms
legs
heart
find in the atma
every utterance
every desire
every love
that was denied.
Ghadar
rang aur
jung
ka manch
roz-dar-roz
zindagi bina haare
transl(iter)ation
tarjuma?
no italics
नीना की नानी की नाव चली
इन पंक्तियों की शुरुआत भाष्वती और नेहा द्वारा बनाए एक कैलेंडर से हुयी जिसमें नीना की नानी की नाव का ज़िक्र देखा, और फिर हमने बह कर भाष्वती को ये ईमेल भेजी ३१ मार्च २०१६ को...
नीना की नानी की नाव चली
अनगिनत सालों बाद,
वो भी कुछ ऐसे दौर में
जब नानी बार-बार
बच्ची-सी ही दिखी,
बच्ची-सी ही दिखी,
मानो
ज़िन्दगी की उठान
और ढलान के मायने
बह-बहकर एक में मिल
गए हों, और
साल की पहली बारिश में
और ढलान के मायने
बह-बहकर एक में मिल
गए हों, और
साल की पहली बारिश में
गली के बीचोबीच
चौबच्चा बन गए हों...
चौबच्चा बन गए हों...
जहाँ तमाम बचपन इकठ्ठे होकर
अपनी-अपनी नावें
तैराने की कोशिश में हों
अपनी-अपनी नावें
तैराने की कोशिश में हों
नानी की यादों, छड़ियों, शैतानियों,
और क़िस्सों के सहारे
और क़िस्सों के सहारे
टुटही कमानी,
धुंधलाती नज़र, और
झुकती कमर में से
झांकती
धुंधलाती नज़र, और
झुकती कमर में से
झांकती
हिम्मतों के सहारे
इस नानी में मैं भी हूँ,
मेरी माँ भी,
मेरी माँ भी,
मेरी दादी
और नानी भी,
और नानी भी,
मेरी उत्तराखंड,
सीतापुर,
और राजस्थान की
लड़ाकू सखियाँ भी
सीतापुर,
और राजस्थान की
लड़ाकू सखियाँ भी
मेरी अपनी जनी
और मुँह बोली बेटियां भी
और मुँह बोली बेटियां भी
इतनों को एक साथ
मिनिसोटा में जिलाने का
मिनिसोटा में जिलाने का
काम सिर्फ आप और नेहा ही
कर सकती थीं...
कर सकती थीं...
आपकी कविता की
निरंतरता को
सलाम।
निरंतरता को
सलाम।
सच में
कैसा तोहफ़ा भेजा है दोस्त,
कभी न मुरझाने वाला
तमाम सिसकियों के बीच
में भी
तड़पकर
में भी
तड़पकर
मुस्कुराहट पैदा करने वाला
सूखे हुए रेगिस्तानों
में लफ़्ज़ों और यादों की बाढ़ लाने वाला।
बहुत सारा शुक्रिया।
बेहिसाब प्यार के साथ,
--ऋचा
Shuruaat / शुरुआत (१) / कैसे चुनूँ ?
शुरुआत (१)
कैसे चुनूँ ?
अपनी आवाज़ को पहचानना
तो जान गयी हूँ
लेकिन
कैसे चुनूँ
अपने लफ्ज़ ?
अपनी लिपि ?
इन अनगिनत दायरों
दीवारों
उम्मीदों
और आहटों
के बीचोंबीच
इन सुलगती, सुगबुगाती खामोशियों के आर-पार
क़ायदे क़ानून और सरहदों के खेल में
उलझी चुप्पियों
को तोड़ने की कश्मकश
शुरू करूँ तो
कहाँ से
चुनूँ
अपने लफ्ज़ ?
अपनी लिपि ?
अपनी जुबां?
हर बार.
२७ मई २०१६, सेंट पॉल (शरद-पूर्णिमा)
Aisi hi ek nayi-purani shuruat (13 farwari 2015, Saint Paul)
Beginnings new and old... shuruaten nayi
purani
No longer a footnote: Writing and shuttling between worlds, struggles,
commitments, and dreams requires me to choose words and scripts that imprison
even as they allow me to imagine some kind of liberation from the tyranny of
academic languages...or, languages that often foreclose the possibility of
touching, troubling, permeating, and piercing the borders that matter to me and
to those with whom I want to speak.
No sooner than I give a subtitle to these
'beginnings' in English, the words start seeming alien with respect to the
intimate, intricate churnings (mine and others') that I want to share here.
Then I try Hindustani, deliberately choosing "simple" words that
cannot be claimed as
pure Hindi, or Urdu, or Awadhi; words that can allow me to
ignore the labels that categorize my zubaan and make our bolis disappear
from our mouths and pages and minds... Yet, just as these words appear on my
screen in Devanagri--a script I have worked hard to learn to type in without
getting stuck in the clutches of unicode--I feel trapped by that very
scripting.
So I transliterate the Devanagri back into the Roman script.
Exhausting details? Maybe so. But that is beacuse the labor of translation is often intense and exhausting...possibly violent even...Yet, it may carry a hope of sparking a new beginning...
तो पेशे ख़िदमत है, इक और शुरुआत
Here is another beginning
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