इन पंक्तियों की शुरुआत भाष्वती और नेहा द्वारा बनाए एक कैलेंडर से हुयी जिसमें नीना की नानी की नाव का ज़िक्र देखा, और फिर हमने बह कर भाष्वती को ये ईमेल भेजी ३१ मार्च २०१६ को...
नीना की नानी की नाव चली
अनगिनत सालों बाद,
वो भी कुछ ऐसे दौर में
जब नानी बार-बार
बच्ची-सी ही दिखी,
बच्ची-सी ही दिखी,
मानो
ज़िन्दगी की उठान
और ढलान के मायने
बह-बहकर एक में मिल
गए हों, और
साल की पहली बारिश में
और ढलान के मायने
बह-बहकर एक में मिल
गए हों, और
साल की पहली बारिश में
गली के बीचोबीच
चौबच्चा बन गए हों...
चौबच्चा बन गए हों...
जहाँ तमाम बचपन इकठ्ठे होकर
अपनी-अपनी नावें
तैराने की कोशिश में हों
अपनी-अपनी नावें
तैराने की कोशिश में हों
नानी की यादों, छड़ियों, शैतानियों,
और क़िस्सों के सहारे
और क़िस्सों के सहारे
टुटही कमानी,
धुंधलाती नज़र, और
झुकती कमर में से
झांकती
धुंधलाती नज़र, और
झुकती कमर में से
झांकती
हिम्मतों के सहारे
इस नानी में मैं भी हूँ,
मेरी माँ भी,
मेरी माँ भी,
मेरी दादी
और नानी भी,
और नानी भी,
मेरी उत्तराखंड,
सीतापुर,
और राजस्थान की
लड़ाकू सखियाँ भी
सीतापुर,
और राजस्थान की
लड़ाकू सखियाँ भी
मेरी अपनी जनी
और मुँह बोली बेटियां भी
और मुँह बोली बेटियां भी
इतनों को एक साथ
मिनिसोटा में जिलाने का
मिनिसोटा में जिलाने का
काम सिर्फ आप और नेहा ही
कर सकती थीं...
कर सकती थीं...
आपकी कविता की
निरंतरता को
सलाम।
निरंतरता को
सलाम।
सच में
कैसा तोहफ़ा भेजा है दोस्त,
कभी न मुरझाने वाला
तमाम सिसकियों के बीच
में भी
तड़पकर
में भी
तड़पकर
मुस्कुराहट पैदा करने वाला
सूखे हुए रेगिस्तानों
में लफ़्ज़ों और यादों की बाढ़ लाने वाला।
बहुत सारा शुक्रिया।
बेहिसाब प्यार के साथ,
--ऋचा
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